कुछ लोगों को हम रिश्तों की,
बुनियाद सिखाने चले थे । x 2
वो चल दिए तो हमने पाया की
हमारे अपने रिश्ते बिखरे पड़े थे । x 2
चंद परछाइयों को हम हमने अपनों से ज्यादा सच माना
पर परछाइयों की तो फितरत है
अँधेरे में साथ छोड़ जाना ।
उस काली रोशिनी में एकाएक किसी ने
मेरा हाथ था थामा ,
पर ग़म के उस सागर में डूबे थे हम
की उस साथ का एहसान भी न माना ।
उजाला तो वही था पर ऑंखें हम दबा रखे थे,
खुशियों के उस सागर में भी हम
दिल में ग़म दबा रखे थे ।
एक आस थी ऐसी की वो खोया था जो
फिर वो वापस आएगा ,
हमारा हाथ थाम , हमारी आँखें खोल
हमे भी गोते लगवाएगा ।
उस अँधेरे वाले साथ ने फिर हमे गले से लगाया
और कहा की पास कहीं है
व्रक्ष की घनी छाया ।
मेरे अंतरमन ने बोल की क्यों तू है इतना रॊता ,
आँखें खोल , दुनिया देख,
न रह जा ऐसे सॊता ।
कोई न आएगा मदद को , जो खुद मदद न कर सका ,
तुझे ग़म देनें वाले तुझसे छीन लेंगे सारे सखा ।
पर मैं तो था एक जीवंत प्राणी
जो सांस चलते भी था मर पड़ा
पाल रहा था अपने दर्द को
कर रहा था उसे हर क्षण बड़ा ।
शायद जो पास थे उन्हें मैं देख न पाया
और दूर जाने वालों को मैं रॊक न पाया ।
मुझे चाहने वाले तो थे अभी भी
पर शायद मैं उन्हें कभी छह न पाया
और ये सच मैं औरों में कभी भी देख न पाया ।
अरे दोषी क्यों ठहरता है जो खुद दोषी तू रहा है
औरों से तू मांगता स्नेह पर अपनों की तुझे न परवाह है ।
नींद खुलेगी तब पायेगा
की क्या क्या तूने खोया है
अपनों का बलिदान न देखा
क्यूंकि हर उस क्षण तू रूया है ।
अभी समय है , आज बदल जा ,
देख तू क्या पा सकता है ,
अरे चले गए दो जाने वाले ,
पर निष्फल प्रेम तुझे अपनों का
आज भी हर पल मिलता है ।
मरा नहीं है मुर्ख अभी तू
न हुआ लुप्त कोई प्राणी है
दर्द भरा जो तेरे मन में
उस दर्द की न कोई वाणी है ।
यह सोच के मैंने आँखें खोली ,
और पाया कितना थक हूँ मैं ,
मेरे अपने करह रहे पीड़ा से ,
पर मदद करने से रुक हूँ मैं ।
पर आज मैं अपने अंतर्मन को हार नहीं दिलवाऊंगा ,
खुशियों के इस अपर सागर में ,
मैं सबको गोते लगवाऊंगा ।
क्यूंकि ख़ुशी मिलेगी हर गोते में ,
जब सब साथ आजायेंगे ,
साथ हँसेंगे , साथ गायेंगे ,
और साथ अपनों के हम सब मिलके
अपने ग़म भूल जायेंगे ।
—
शुभंशु मिश्रा